अक्षय तृतीया की सुबह… मेरी आंखें भोपाल से आई परशुराम की एक छवि पर अटकी। सवाल कौंधा- हम कलियुगी ब्राह्मण क्या परशुराम वंशज हैं? आज के ब्राह्मणों का भला परशुराम के ओज, तप, स्वाभिमान, शास्त्र-शस्त्र से क्या नाता? सतयुग के ऋषि-मुनियों ने कहा है- महाजनो येन गतः स पन्थाः! तो क्या ब्राह्मणों ने महापुरूष परशुराम के अनुसरण में अपने को उन जैसे संस्कारों में रचा-पकाया है? सतयुग का मंत्र है ‘शिव’ बन कर ही ‘शिव-पूजा’ करो (शिवो भूत्वा शिवम् यजेत्)। जिस पूर्वज से हम हैं उस अनुरूप बन उसकी पूजा करेंगे तभी है सार्थकता। उस नाते आज के ब्राह्मणों को क्या पता है कि परशुराम का ब्राह्मण होना क्या था? ब्राह्मणत्व, ब्राह्मणपना क्या है? क्या वे आज परशुराम के विपरीत दास-याचक-भक्ति वृत्ति, गोबर शास्त्र में बुद्धि भ्रष्ट-नष्ट नहीं किए हुए हैं? क्या वे धर्म, समाज, घर-घर में गोबर ज्ञान-प्रचार से बुद्धिहीनता की महामारी बना 140 करोड़ लोगों का अंधकार नहीं बना बैठे हैं? अपने को क्या महज एक जाति नहीं बना दिया है? हां, शायद जाग्रत इतिहास के दो हजार सालों का कोई पाप है, कलियुग की अति है, जो न केवल परशुराम वंशज ब्राह्मणत्व खंड-खंड है, बल्कि धर्म-कौम सहित भारत भी श्रीहीन!
पर पहले जाना जाए कि कौन थे परशुराम और क्यों कर हुए वे ब्राह्मणत्व के प्रतीक?
धर्म-पुराण मान्यता अनुसार परशुराम थे त्रेता युग में राम से पूर्व विष्णु अवतार (अपने हिसाब से सतयुग का उत्तरार्ध)। परशुराम और उनका परिवार परम ब्रह्म की तपस्या और ज्ञानार्जन में रत था। परशुराम प्रथमतः ज्ञान-बुद्धि उपासक थे। उनका ब्राह्मणपना यह चिंतन लिए हुए था कि पृथ्वी-धरा-वसुधा एक परिवार है (वसुधैव कुटुम्बकम) और ब्राह्मण का कर्म समाज-बुद्धि दायित्व, सर्व मंगल, सर्वजन हिताय (सर्वेजनासुखिनो भवन्तु) है। उन्होने शास्त्रों से अर्जित बुद्धि-विवेक से शस्त्र-शक्ति का उपयोग किया। परशुराम ने ज्ञानार्जन, तप-साधना की पुण्यता से ‘बह्मं जानाति इति ब्राह्मणः’ की उक्ति को चरितार्थ किया और वे ब्रह्मस्वरूप याकि ज्ञानस्वरूप के साथ धर्मशास्त्र के सात चिरंजीवियों में से एक हुए (अष्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः)।
कहते हैं (समुद्रोपनिषद) परशुराम ने वनवासी लोगों को मुक्त कर उन्हें ‘ब्राह्मण’ बनने को कहा (कोंकणस्थ ब्राह्मण’ का इतिहास आख्यान)। कैसे? उन्हें शिक्षावान, बुद्धिवान, आचार-विचार में पवित्रता व निर्मलता से व्यवहार की सीख और वरदान दे कर कहा- आज से तुम सब लोग अपने को ब्राह्मण समझना। अपने चरित्र में निर्मलता, पवित्रता, स्वच्छता, लोकसेवा, शूर-वीरता लाना। और हां- अग्रतश्चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरे धनुः। इदम् क्षात्रं इदम् ब्रह्मः शापादपि शरादऽपि च।। मतलब पहले वेद और शास्त्र हैं, फिर उसके पीछे सिद्ध धनुष बाण हैं। जब जरूरत हो, सत्य स्थापित करना हो तब हमें फरसे, धनुष-बाण याकि शस्त्र-शक्ति का उपयोग करना है।
यह था हिंदू के सत्य-कृतयुग में ब्राह्मण और उसके ब्राह्णपने का सत्व-तत्व।
जाहिर है ब्राह्मण कर्म है न कि जात। जो भी व्यक्ति बुद्धि, ज्ञान, संतोष, संयम, सत्य, करूणा में जीता है, वह ब्राह्मण है। शास्त्र-ज्ञान-विज्ञान-सत्य से ही मानवसृष्टि का चिरंतन विकास है तो वह हर चिंतक-तपस्वी-ज्ञान-विज्ञानशोधक, अनुसंघानकर्ता, सत्यार्थी सचमुच का ब्राह्मण है। अमेरिकियों ने हार्वर्ड विश्वविद्याल वाले बौद्धिकों, ज्ञानियों, प्रभु वर्ग को ‘बोस्टन ब्राह्मण’ (Brahmin Caste of New England-1860) नाम दे रखा है। मतलब ब्राह्मण का सत्यवादी अर्थ पश्चिमी विचारकों को भी बुद्धि विन्यास में उपयुक्त लगा। तभी आज के ब्राह्मण को यह मूल मंत्र गांठ बांधे रखना चाहिए कि- जन्मना जायते शूद्रः, संस्कारात् द्विज उच्यते। यानी जन्म से हर कोई अज्ञानी है लेकिन कर्म, जीवन-साधना से ब्राह्मणत्व का हकदार।
हां, सनातनी हिंदू के सत्यकाल का निर्विवाद सत्य है कि कई जातियों से ऋषि हुए। मल्लाह कन्या से वेदव्यास, मृगी से श्रृंगी ऋषि, कुश से कौशिक, जम्बुक से जाम्बूक, वाल्मिक से वाल्मीकि, शशक पृष्ठ से गौतम, उर्वशी से वशिष्ठ, कुम्भ से अगस्त्य ऋषि। सोचें, बिना ब्राह्मण कुल-जाति के इस ऋषि-ब्राह्मण विरासत और खुद परशुराम द्वारा वनवासियों को ज्ञान कर्म में दीक्षित कर ब्राह्मण बनाना क्या प्रमाणित करता है?
केवल और केवल बुद्धि, ज्ञान-सत्य और आनंद की निर्विकल्प स्थिति बनाने में जुटे रहना ही ब्राह्मणपना है। इस बात पर मैं इसलिए अधिक जोर दे रहा हूं, कि आज ब्राह्मण अपने को जाति में बदल जिस जाति- आईडेंटिटी में परशुराम की जयंती मनाता है वह उसी के लिए घातक है। वह पूरे समाज का, राष्ट्र का दायित्व भुला गोबर और भक्ति, भय में परशुराम से द्रोह करता हुआ है।
आज के ब्राह्मण का आचरण शास्त्र-शस्त्र सम्मत नहीं, बल्कि तरह-तरह की कुंठाओं, भय, लोभ, भक्ति, गुलामी लिए हुए है। आचरण का न ज्ञान से नाता, न उसके कर्म से। वह शिकायती है, भाग्यवादी है और पराश्रित है! वह सनातनी और आधुनिक विश्व के भी इस सत्य को भुला बैठा कि देश-समाज की राज्यशक्ति अंततः बौद्धिक शक्ति से नियंत्रित होती है। चाणक्य का मान स्थायी है। परशुराम और चाणक्य दोनों ने स्वार्थान्ध राजशक्ति को खत्म करने का प्रण ले लोगों को मुक्त कराया, लेकिन खुद राजा नहीं बने। राजा-सत्ता की चाह में चाटुकार नहीं बनना चाहिए। उसे डर कर कोई भक्ति नहीं बनानी चाहिए।
मैं भटक गया हूं लेकिन ‘ब्राह्मण आज’ की दशा देख भटकना जरूरी है। सोचें परशुराम के वंशजों का यह डर कि भारत का इस्लामीकरण हो जाएगा। इसलिए नरेंद्र मोदी रक्षक हैं। नौकरियां नहीं हैं तो मोदी से आरक्षण मिलेगा या धर्म-आस्था की राजनीति होगी तो मंदिर बढ़ेंगे, प्रसाद-चढ़ावा बढ़ेगा। हम समर्थ नहीं सो, मायावती, अखिलेश, ओवैसी, ओबीसी, द्रविड नेताओं की कलियुगी राजनीति के आगे हम लाचार हैं। तभी मुसलमान का डर और गुजरात की झांकी लिए हर-हर मोदी, घर-घर मोदी की आस्था पैठाई है।….. कोई समझने को तैयार नहीं कि ब्राह्मण खुद समर्थ है। परसुराम ने अकेले ही तो फरसा उठा 21 भार पृथ्वी से धर्मशत्रुओं का नाश किया था। आज की तरह नहीं होने दिया कि धर्म-विवेक-बुद्धि-शस्त्र को ताक में रख दूसरे के भरोसे सर्वत्र करम फूटने दिए।… कभी गंगा में देश की करेंसी बहे तो कभी नागरिकों की लाशें!
गौर करें गंगा किनारे के ब्रह्म ज्ञान पुंज वाले बनारस के परशुराम वंशजों (हर ब्राह्मण, हर भूमिहार, हर बुद्धि-ज्ञान साधक) पर? वे विपदा काल में क्या करते हुए हैं? वहीं जो राजा को चुनने के वक्त करते हुए थे। भक्ति-वंदना यह कि हर-हर मोदी, घर-घर मोदी। और शायद कलियुगी ब्राह्मणों में बनारसी पंडितों का बड़ा पाप है जो देवाधिदेव महादेव के घर में हर-हर, मोदी, घर-घर मोदी का शंखनाद करके शेष देश के ब्राह्मणों में, धर्मपरायण लोगों में व्यापारी वृत्ति के स्वार्थान्ध नेता की मान्यता बनवाई, उसे राजा बनवाया। सो देश को, देश के 140 करोड़ लोगों का श्राप लगना ही था। बाबा विश्वनाथ और मां गंगा को कुपित होना ही था। ईश्वर की कसम खा मैं बता रहा हूं कि दो-ढाई साल पहले मुझे विश्वनाथ की नगरी में वहां के एक भले, अराजनीतिक-सात्विक-सहज वृत्ति वाले सनातनी ने पीड़ा के साथ कहा- बड़ा पाप हो रहा है। बाबा के स्थान पर अहंकारी राजा ऐसे तोड़-फोड़ कर रहा है जैसे वह सृष्टि रचियता हो। इतना भी नहीं सोचना कि आदि काल में हजारों सालों से देवाधिदेव महादेव ने अपने त्रिशूल पर वाराणसी में जहां वास बना रखा है वहां बाबा को आह्वान कर, संकल्प, यज्ञ-साधना से अनुमति लेनी थी या ब्राह्मणों, साधकों, विद्वत्व जनों से सलाह में काम होना चाहिए था। मगर सौंदर्यकरण के नाम पर ऐसे बुलडोजर चलाना, मंदिरों को उजाड़ना, जोर-जबरदस्ती में जो है वह बहुत अनिष्टकारी है। सुधि ब्राह्मण का वह भाव मुझे चिंता में डाल गया था लेकिन मैं बनारस के ब्राह्मणों में वापिस चुनावी हर-हर मोदी को सुनते हुए था। मतलब एक तरह की यह बेफिक्री की कई युग पुराने देवाधिदेव महादेव भला कलियुग के नए भगवान को श्राप देने की क्या हिम्मत करेंगे।
पर आज महादेव और गंगा का श्राप तो दिख रहा है। बनारस, यूपी और देश का कथित परशुराम का वंशज ब्राह्मण भले न माने, न समझे कि उनसे पाप हुआ है लेकिन ब्राह्मणों के घर-घर में भी बीमारी है, मौत है तो गंगा के दर्शन में लाशें हैं।.. फिर भी अहंकारी राजा का अहंकार देखिए श्मशान-लाशों के सूतक के बावजूद मंदिर बनता रहेगा। इस घमंड से कि मेरे से वाराणसी में महादेव की अद्भुतता-सुंदरता होनी है। मेरे से अयोध्या में रामजी का मंदिर भव्य बनेगा वैसे ही जैसे इंद्रप्रस्थ में मेरे महल, मेरे दफ्तर, मेरी संसद बन रही है। सोचें, सबके पीछे सोच का पैटर्न?
क्या आज का ब्राह्मण पैटर्न बूझने की बुद्धि सामर्थ्य लिए हुए है? क्या परशुराम के कलियुगी वंशजों को, मोहन भागवत, दतात्रेय, भैय्याजी जोशी, नितिन गडकरी, जेपी नड्डा, डॉ. जोशी जैसे चेहरों, हर-हर महादेव के आगे हर-हर मोदी का शंखनाद बनवाने वाले भक्तों को महादेव के वास स्थल पर अहंकारी बुलडोजर के पाप का भान है? घर-घर बीमारी पहुंची है और काबू में नहीं आ रही है तो किसी में भी नरेंद्र मोदी से जनसंहार पर बात करने की हिम्मत है?
नहीं। क्योंकि एक तो परशुराम के सन् इक्कीस के वंशज भय में भयाकुल जीवन जीते हुए हैं। दूसरे सब छोटे-छोटे स्वार्थों, सत्ता के दुःशासनी मोह में व्यापारी वृत्ति के आगे समर्पित हैं। हिसाब से परशुराम का स्मरण करने वाले, परशुराम से जीवन की पुण्यता, गौरव की कामना वाले हर बुद्धिमान (?) ब्राह्मण को सोचना चाहिए कि उन्होंने जिस चेहरे को महादेव बना, उसकी भक्ति, पूजा-आरती कर, तमाम तरह का झूठ बनवा सतावान बनवाया है उससे उन्हें और उनके देश को क्या प्राप्त हुआ है? इन सात सालों में देश-धर्म की आत्मा कलुषित हुई है या पुण्यकारी?
सो, परशुराम के वंशज बेसुधी की बुद्धि में, भक्ति के समर्पण में जीते हुए हैं। अहंकार को मान्यता देते हुए हैं। अत्याचारों और मूढ़ता के मूक दर्शक हैं। क्योंकि दूसरा है कौन? उफ! परशुराम-चाणक्य के वंशज ब्राह्मणों का ऐसा सोचना। इतना पतन! इनकी खोपड़ी को इतना भी स्मरण नहीं कि परशुराम ने यह नहीं सोचा था कि मैं 21 बार अहंकारी-स्वार्थी राजशक्तियों का नाश कर रहा हूं तो आगे क्या होगा। अहंकार-अन्याय-बरबादी इसलिए मंजूर क्योंकि उसकी जगह के लिए दूसरा नजर नहीं आ रहा। क्या परशुराम का व्यवहार, उनके शास्त्र-शस्त्र ऐसी दुविधा में थे? चाणक्य ने राजा नंद की सत्ता को उखाड़ने के साथ क्या ऐसे सोचा? ब्राह्मणों की आज समस्या यही है कि वे नहीं जानते कि बुद्धि से भारत के ही सनातनी-सत्यवादी ब्राह्मण अमेरिका को मंगल ले जाते हुए हैं। पिछले दिनों नासा के मंगल मिशन में प्रवासी भारतीयों का अभिनंदन करते हुए राष्ट्रपति बाइडेन ने कहा था- आप लोग अद्भुत। मेरे प्रशासन में भी आप लोग… हां, उप राष्ट्रपति कमला हैरिस 1953-54 में दिल्ली से अमेरिका गई ब्राह्मण बेटी की वंशज ही तो है, जिसने शायद मद्रास में तब द्रविड मूवमेंट की बैकग्राउंड में अमेरिका में अवसर का बुद्धिबल से संकल्प बनाया। मेरी धारणा है कि दक्षिण के राज्यों में ब्राह्मण विरोधी राजनीति का सर्वाधिक फायदा ब्राह्मणों को ही हुआ। वे पूरी दुनिया में जा बसे और बुद्धिबल से अपना झंडा गाढ़ा।
तो आज के ब्राह्मण जब भय, चिंता, स्वार्थ में जीते हुए हैं, बिना चिंतन-मनन के हैं तो कैसे वे परशुराम के वंशज लायक हैं। वह भक्ति में जीता हुआ है। वह स्वार्थ सिद्धि में सनातनी सत्व-तत्व, त्रिदेव, देवाधिदेव महादेव को दरकिनार कर हर-हर मोदी करता है। इन भक्त ब्राह्मणों ने समाज को भटकाया है। सबको व्यापार वृत्ति, लालच, लूट, नौटंकी, प्रोपेगेंडा के भंवरजाल में जकड़वा डाला है। ब्राह्मण शास्त्र और शस्त्र दोनों में रीता है और हाथ में वह सिर्फ पूजा की थाली लिए हुए है। कहां ये परशुराम और चाणक्य की वृत्तियां धारे हुए हैं? कैसे वैसे संस्कारित, वैसे क्रोधित हो सकते हैं, जैसे परशुराम और चाणक्य अहंकारी राजा पर हुए थे। (साभार- नया इंडिया)